क्यों आती है शर्म तुम्हें,
तुम क्यों छिपाती हो,
जानने दो सबको कि हर महीने
जिस्म से तुम कितना खून बहाती हो?

आने वाले होते हैं जब ये दिन,
उड़ जाती है रातों की नींद,
तप जाता है तुम्हारा शरीर,
सबके सामने तुम रो भी न पाती हो.

जरा से आंसू देख
लोग उड़ाते हैं मजाक तुम्हारा,
हर महीने इतनी तकलीफ सहकर,
कैसे जानलेवा दर्द सह जाती हो?

बड़े दर्दनाक होते हैं
पीरियड्स के ये 5 दिन,
टुकटुक देखती हो घड़ियां,
काटती हो हर सेकेंड गिन-गिन,

मुझे सफल खुद से ज्यादा, दूसरों के लिए होना है!

बेतहाशा दर्द से टूटता है
शरीर का हर एक हिस्सा,
बुखार, सिरदर्द और उल्टियों से
पड़ता है तुम्हारा वास्ता.

हंसना-खाना दूर की बात है,
दर्द में न बैठा भी न जाता है,
तपते शरीर को लेकर
सबके बीच झूठा मुस्कुराना पड़ता है.

परीक्षा यहीं तक नहीं है तुम्हारी,
सबको बदल देती है 4 दिन की ‘माहवारी’,
न मंदिर में जाने को मिलता है, न रसोई में,
जहां 24 घंटे देखी जाती है नारी.

जब होती है इन्हें सबसे ज्यादा जरूरत,
परिवार में नहीं मिलती किसी को फुर्सत,
दर्द में कराह कर भी काम करती हो,
तुम तो नारी हो, कहां आराम कर सकती हो?

ऐ इंसान तू भी क्या कमाल है, आंखों पर तेरी कैसे भ्रमों का जाल है

किसी के पास बैठना चाहो तो
वो मन ही मन कतराते हैं,
छुआछूत, अशुद्ध कहकर
दिल तुम्हारा और दुखाते हैं.

बड़ी मजबूत रही हैं भारतीय नारियां,
बिना आराम, बिना सामान कैसे जीवन जिया,
कड़ी बंदिशों के बीच कह पाई होंगी किसी से दर्द,
बिना उफ्फ किये हर महीने भयंकर दर्द सहा.

कैसे सदियों से बढ़ता पुरुषों का वंश,
अगर लड़कियां-महिलाएं न सहती ये दर्द,
फिर क्यों उठते हैं नारी पर सवाल,
अछूत-अपवित्र कहकर होता है बवाल.

कैसे कहते हो महिला-पुरुष समान हैं,
कभी मां से पूछा- क्या स्त्री होना आसान है,
खून तेरा भी लाल है, खून मेरा भी लाल है,
मैं एक स्त्री हूं क्या इसी का मलाल है?

समझ सको तो समझना
इन दिनों एक स्त्री की पीड़ा,
जो हमेशा उठाए रहती हैं,
घर की जिम्मेदारियों का बीड़ा.

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सृष्टि-सृजन से जुड़ी ‘माहवारी’
महिलाओं को मिला वरदान है,
ये तो बढ़ते वंश की कहानी है,
इसी से बनता ‘भ्रूण’ और फिर इंसान है.

आ चुका है समय पुरुषों के बदलने का,
इन दिनों घर के काम में मदद करने का.
पिता-भाई-पति सबको समझना चाहिए,
बोलें प्यार से, बेवजह न उलझना चाहिए.

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